बलिदान देणाऱ्या त्या 500शुरविर महारांना निळी सलामी

धर्म

प्रतिनिधी नरेंद्र कांबळे बल्लारपूर

पेशवाओको महारोने क्यों काटा” सोनू आय. कांबळेमित्रांनो, हा लेख लिहीण्या मागचा उद्देश हाच की, “भिमा कोरेगावचे युध्द का झाले होते” असा प्रश्न मला नेहमीच पडायचा ! ते युध्द का व कशासाठी झाले असावे ? आणी ते युध्द तर ‘दुसरा पेशवा व इंग्रजात’ झालेले होते मग त्यात, महारांचाच का उदो-उदो होतो. हे झाले अगदी प्राथमीक प्रश्न आणी असे प्रश्न नेहमी माझ्यासकट आपणासही पडायला पाहीजे. ‘याचा अर्थ असा नाही की माझे मत मी आपणावर लादतो.’ कारण प्रश्न पडण हा एक जाग्रुत पणाच एक चागल लक्षण आहे. आपल्याला फक्त हे युध्द 1 जानेवारी 1818 ला झाले होते व त्यात 500 शुरविर महारांनी 28 हजार पेशव्यांना अक्षश: कापुन काढले. एवढीच पाश्वभूमी माहीत आहे. म्हणून मला असे वाटते की, ते युध्द होण्यामागील इतिहास थोडक्यात मी माझ्या फाटक्या-तुटक्या भाषेत लिहावा. बर, मीच ह्या बाबी आपणापुढे आणत आहो असे नाही. या आधीही बर्याच मोठ-मोठ्या इतिहास कारांनी यावर भरपूर लेखन करुन मोठ-मोठे ग्रंथ लिहीलेले आहेत. पंरतू ते सर्वच साहीत्य व पुस्तके हे सर्वसामान्य जनतेपर्यत पोहचत नसल्याने हा लेख संपादन करण्याचे मी धाडस करीत आहो. या युध्दासंबधी जेवढा भाग आहे. तोच भाग थोडक्यात मांडण्याचा एक छोटासा प्रयत्न केलेला आहे. आणी त्यात मी माझ्या मताचा कोणताही उतारा टाकलेला नाही जे माझ्या वाचनात आले तेच लिखाण फक्त मी त्या-त्या पुस्तकातून उतारे जसेच्या तसे घेऊन हा लेख संपादन केलेला असून तो केवळ आपल्यापुढे ठेवलेला असुन या लेखाचे श्रेय घेण्याचा माझा मुळीच उद्देश नाही. तेव्हा मी माझ्या संपादनाच्या लिखाणाला खालील प्रमाणे सुरुवात करतो. छत्रपती शिवाजी महाराज यांचे द्वारा स्थापीत स्वराज्यां के सुत्र 100 वर्षो तक ब्राम्हण पेशवाओ के हाथों में रहे । उन्होंने छत्रपती शिवाजी महाराज की न्यायोचित गुणग्राह्य शासन प्रणाली को नष्ट-भ्रष्ट किया और उनकी जगह पर अन्यायपुर्ण जाती प्रधान कर्मठ व्यवस्था लाई गई थी । इस कारण सहज ही आंतरिक कलह बढत गया । 6 नवम्बर 1818 को बालाजी नातू ने अपने हाथ से शनिवारवाडे पर फहराया पेंशवाओं का ध्वज उतारा और उसकी जगह पर ब्रिटीश ध्वज फहराया । इसके साथ ही पेशवा का राज्य समाप्त हुआ । उस समय द्वितीय बाजीराव गद्दी पर था ।पुना के पेशवा कितने निच, अंधम, कामांध थे इसके कुछ चुनिंदा उदाहरण इस प्रकार है.1 – “ब्राम्हण पेशवा, पेशवाई के काल में पूना में किसी की भी पत्नी अथवा बेटी को लाकर उसके साथ बलात्कार किया करते थे । बाजिराव रघुनाथ की “घट कंचुकी” प्रसिध्द है । चुनिन्दा स्त्री-पुरुषों के साथ रघुनाथ महल में एकत्रित होकर अनेक महिलाओं की चोली एक बडे पात्र में रखता था । जिस पुरुष को जिस महीला की चोली मिलेगी वह उसके साथ सभी के सामने संभोग करता था । इस प्रकार का शर्मनाक खेल रघुनाथ रात दिन खेला करता था ।” दुसरा बाजीराव पेशवा तो बहुत ही स्त्री-लंपट महिलाओं के लिए पागल था। सभी सरदारों ने अपनी पत्नी को शनिवारवाडे मे भेंजना चाहिए ऐसा उसका फरमान था । कुणबी महिला को चार आने मे खरीदने का संदर्भ पेशवाई के रिकार्ड मे आज भी मौजूद है।2 – द्वितीय बाजीराव पेशवा स्वेच्छाचारी, दुराचारी, अपात्र और पराक्रमहिन थे । उसका पाचवा विवाह हरिपंत ढमढेरे की कन्या के साथ हुआ था । युवा पत्नी मिलने से पेंशवा प्रसन्न हुआ और उसने एक सरदार अंबीकर की जागीर हडपकर उसे ढमढेरे की अधीन कर दिया । आयुष्यमती गंगाबाई राजमाचिकर नाम की विधवा के साथ उसके अनैतीक आचरण थे । पेशवा हमेशा व्यभीचारी महिलाओं से घिरा रहता था । उनके राजनितीक दौरे के समय उनकी जनता की सुंदर-सुंदर बेटियों पर नजर होती थी । ऐसे डर से पूना से सौ किलोमीटर दूर “वाई” नामक गांव की अनेक महिलाओं ने कुएं मे कूदकर अपनी जान दे दी थी । इस प्रकारका दुराचारी पेशवा था इसलिए पेशवाई का अंत करीब आते चला गया था ।3 – द्वितीय बाजीरावच्या वाड्यात दोन-तिनशे बायका नित्याने येत असत. त्यांनी सकाळी आंघोळीचा समारंभ करावा, तो प्रहर दिवसापर्यत चाले ! नंतर जेवणाची तयारी झाल्यावर इच्छेस येईल त्या वाड्यात बाजीरावाची स्वारी जात असे पंक्ती भोजनाचे समयी सर्व काळ बायका जवळ बसलेल्या असायच्या. आश्रित लोकांनी चार-चार, पाच-पाच लग्ने करुन घरी एक बायको ठेवावी आणी सरकारवाड्यात बाकीच्या बायका पाठवाव्यात ! आणी या करीता अन्यबा राहतेकर यांनी जास्ती लग्ने केली होती. जो ग्रूहस्थ वाड्यात बायको पाठविणार नाही त्याजवर बाजीरावाची नाराजी व्हायची. त्यामुळे अब्रुदार ग्रुहस्थानी वाड्यात जाण्याचे सोडले होते. इतकेच नाही तर पुणे देखील सोडले होते. बयाबाई दातारीन, शिता शेंडी, काशी दिक्षितीण, उमा फडणीस, ताई पेठीण या प्रकारच्या सुमारे दोन-चारशे उनाड बायकांचा थवा नेहमी वाड्यात भरलेला असे. त्या नेहमी श्रूंगार, दागीने घालून राहायच्या. त्या सर्व स्त्रीया देखण्या, रुपवान, तरुण, थट्टेखोर व बोलक्या असत. त्याप्रमाणे रावजीच्या कारकिर्दीत बहुत ग्रुहस्थांची घरे खराब झाली ! जेवून उठले म्हणजे पर्वतीस वगैरे दर्शनास आल्यावर शास्त्री, पंडीत व भट यांची कचेरी होत असे. त्यापैकी कोणी म्हणावे, “बाजी हा क्रूष्ण अवतार आहे ! कोणी म्हणावे की, शिवाचा अवतार प्रकटला आहे.”4 – पेशवा की सेना के उच्च वर्ण के अधिकारी और सैनिक, महार सैनिक का पग-पग पर अपमान करते थे, छुआछुत, अपमान, अत्याचार के कारण पेशवा की सेना से ब्रिटीशों द्वारा स्थापित रेजिमेंट मे महारों ने भारी संख्या में प्रवेश किया । क्योंकी ब्रिटीश सेना में जातिभेद नही था, इसके विपरित उनके साथ अपनत्व का व्यवहार किया जाता था । सेना में शिक्षा का अवसर प्राप्त हुआ । विशेष बात इन महारों को आपने सामर्थ को सिध्द करने का अवसर मिला और उनकी प्रशंसा होने लगी । 5 – पेशवा तो ब्राम्हणों की बुध्दी पर जिने वाले थे । ब्राम्हणों ने जातीय द्वेष का पेशवाओं मे बीजारोपन किया । इस कारण पेशवा अछुतों की और अत्यंत घूणास्पद नजर से देखने लगा। पेशवा की सेना में विद्यमान महार सैनिकों का पेशवा को अपमान सहते हुए नौकरी करनी पडती थी । उन्हे कुत्ते-बिल्लीयों की तरह जीना पडता था । इन्हें अपना विकास करने का अवसर भी प्राप्त नही होता था । इस कारण जिस अवस्था में वे थे, उसी अवस्था में उन्हे रहना पडता था । पेशवा के अधिकारी महारों से हमेशा चिढते थे । इन अधिकारियों ने महारों को इतना सताया की उसकी कोई सीमा नही रही । पेशवा की सेना में जातीभेद माना जाने के कारण उस समय महारों की स्थिती सेना में भी दयनिय हो गई थी ।6 – महारो का सामर्थ, होशीयारी, कर्तव्यनिष्ठा, साहस इन गुणों का पेशवाओं को ज्ञान था । फिर भी उन्हे प्रोत्साहीत करने की अपेक्षा वे उनसे द्वेष करते थे । महारों की अपेक्षा वे (पेशवा) कम सामर्थ्यवान उच्चवर्णीय सैनिकों का गुणगाण करते थे । परंतू महार सैनिकों को सताने में उन्हे मजा आता था ।7 – पेशवा की सेना मे महार सैनिक को, युध्द में लगने वाली तोप बैलगाडी रणभूमी पर ले जाना, यह तोप बैलगाडी पर चढाणा, बैलगाडी रणभूमी पर ले जाकर तोप की व्यवस्था करना, तोप दागना इत्यादी काम महार सैनिकों को करने पडते थे । ऊची जाती के अधिकारी घोडे पर सवार होकर, रणभूमी पर जाते थे । ऐसे समय इस अधिकारी की सेवा में दोन महार पैदल चलते थे । इसमें से एक घोडे को काबू में रखता था तथा दुसरा घोडे को चारा डालणे वाला होता था । 8 – पेशवाओं के ऊची जाती के अधिकारी और सैनिक जातिभेद और उच-निचता से पिडीत थे । इस कारण वे अछूत सैनिकों के साथ दुर्भावना से बुरा बर्ताव किया करते थे और उनका पग-पग अपमान करते थे । यह अपमान सहते थे तथा नौकरी छोडकर जाने की हिम्मत नही करते थे । क्योंकी सेना की नौकरी ही उनका एकमेव पेट भरने का साधन था । पर वे यह व्यवसाय ईमानदारी और नैतिकता के साथ करते थे । द्वितीय बाजीराव पेशवा की फौज मे बांकुरे शिदनाक नाम का एक महार सरदार महायोद्धा था । वह महार सेनापती था । उसने अनेक लडाई मे अपना जौहार दिखाया था उसने खर्डा की लडाई में अपना डंका बजाकर यह लडाई स्वयं के बल पर पेशवा को जीतकर दी थी । भिमा-कोरेगावका युद्ध शुरु होने में एक दो दिन अभी बाकी थे । इसलिये बाजीराव खुश था । शिदनाक के रिश्तेदार ब्रिटीश फौज मे थे उस समय कुछ चुने हुए महार सरदार और प्रमुख सेनापती सिदनाक ने अपनी भूमीका पेशवा के सामने रखने का निश्चय किया । उसने इस संबध में पेशवासे सेनापती और प्रमुख सरदार के पास संदेश भेजा । उनकी और से योग्य प्रतिसाद नही मिलता देख सिदनाक और उसके चुने हुए महार सरदार ने पेशवा बाजीराव से मिलना निश्चित किया । जब महार सेनापती सिदनाक और महार सरदार, बाजीराव पेशवा को प्रत्यक्ष मिले उस समय उन्होने बाजीराव पेशवा को यह कहकर सलामी (मान वंदना) दी, “जोहार मायबाप !” बाजीराव पेशवाने माथे की भौएं तिरस्कार से चढाते हुए पूछा, “क्यो, किसलिये आया है ? उस समय सिदनाक और उनके सरदारों ने अपने महारों की भूमीका विनर्मता से बताते हुए कहा, ‘महाराज खडकी में ब्रिटीश सेना पर हमला न करें और विजय की चाह मत रखिए । ब्रिटीशों की खडकी छावनी हमेशा युध्द की तैयारी में रहती है । वहां पर गोला-बारुद का बडा भंडार है । बडी मात्रा में तोपें हैं । वहां हमेशा पहारा रहता है । वहां के महार सैनिक ‘मरेंगे या मारेंगे’ किसी भी हालत मे पीछे नही हटेंगे ऐसा कहते है । बाजीराव पेशवा हंसते हुए कहते हैं, ‘हम तो जीतने ही वाले हैं । तेरे रिश्तेदार उस छावनी में हैं, मैं उनको करीब से मरते हुए देखुंगा ।’ सेनापती शिदनाक का माथा ठनकता है और वह अपने क्रोध को काबू में करते हुए द्वितीय बाजीराव पेशवा से कहता है, ‘हम ब्रिटीशों की और से लडेगे नही और महाराज पेशवा के विरोध में भी लडने वाले नही । अंतत: मन की भावना व्यक्त करते है कि, हम रिश्तेदारों को कम महत्व देते हुए लडाई मे गोला-बारुद, तोपखाने की परवाह न करते हुए केवल आपकी और से लडते आए है । उसी हौसले के साथ लडकर यदी आपको विजय दिलाई तो पेशवाई मे हमारा स्थान क्या होगा ? हम महारो की ब्रिटीशों की और से लडने की बिल्कुल भी इच्छा नही है । तथापी हमें यह अच्छा भी नही लग रहा । महारों ने आपकी और से लडकर ब्रिटीशों को हराकर भारत से लडकर ब्रिटीशों को हराकर भारत से उनको हमेशा के लिए भगा दिया तो तुम्हारे राज्य और सेना मे हमारा क्या स्थान रहेगा । इस पर द्वितीय बाजीराव पेशवा ने अपने कांधे का गमछा हाथ में लेकर माथा चढाते हुए बहुत ही तिरस्कार पूर्वक नाक मुंह बनाकर हाथ से नकारात्मक उत्तर दिया । उसका चेहरा लाल हो गया था । उस समय सिदनाक और महार सहयोगियों को उसने चेताया कि, “आप महारो को सुई की नोंक जितनी भी जगह देने के लिए हम तैयार नही हैं । हम आप महारों को चेताते है कि आप लोगों का जो स्थान है वही रहेगा । उसमें तिलमात्र भी परिवर्तन नही होगा । भले ही हमारा कुछ भी हो, इसकी हमें जरा भी परवाह नही है ।” “हम आर्य पद्धती के विरुध्द कभी भी बर्ताव नही करेंगे । भले ही हमारे प्राणों की आहुती देने का समय ही क्यों न आ जाए । फिर भी हम निर्भयता से अपनी जान दे देंगे । परंतू हिंदू धर्म की चातुर्वर्ण्य पद्धती और स्मूती ग्रंथ के अनुसार धर्मशास्त्र में महारो को किस प्रकार रखना चाहिए, यह बताया है उसी पद्धती और नियम से आपके साथ बर्ताव करेंगे । इसमे तिलमात्र भी परिवर्तन नही होगा ।” “मनुस्मूती ग्रंथ में बताया गया है कि उच्च वर्ण की सेवा करने के लिए ईश्वर ने महारों को पैदा किया है । आप लोगों को महारों का जीवन सार्थक करने की इच्छा और स्वर्ग प्राप्त करना हो तो तुम्हे हमारी सेवा करनी ही होगी । ऐसा यदी तुमने नही किया तो तुम्हे नर्क में जाना पडेगा । अतः हम पेशवा की और से ही लडना तुम्हारे और धर्म के हित में होगा । धर्म के विरुध्द लडना यह बहुत बडा गुनाह है । इसे आप भली-भांति जानते हैं । जो अछूत महार धर्म के विरुध्द चलेगा वह सजा का पात्र होता है और उसे धर्मशास्त्र के अनुसार मूत्यूदंड की सजा दी जाती है । हमारे राज्या में मनुस्मूती ग्रंथ के अनुसार न्याय किया जाता है । स्मूती ग्रंथो अछूतों ने ऊंची जाती के लोगों की सेवा करनी चाहीए, ऐसा बताया गया है ।” द्वितीय बाजीराव पेशवा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था । उसके गले की धमनियां तन गई थी । सारा वातावरण गर्म हो गया था । द्वितीय बाजीराव की वाणी ने जैसे तप्त लोहे का रस ही कान मे डाल दिया है, ऐसा शिदनाक को लगने लगा । बाजीराव की वाणी से महारों के पैरो की आग मस्तक में आ गई । बाजीराव को इसी समय मार डालना चाहिए ऐसा उन्हे लगने लगा । फिर भी मन पर संयम रखकर दु:खी महार सैनिकों ने बाजीराव से विनती करते हुए कहा “आप ही हमारे माईबाप है ! आपके अलावा हम कहां पर जाएंगे ! आपके आगे हम झोली फैलाते है । परंतू आप हमें दूर न करें । हमारी विनंती को मत ठुकराएं । एमं गरीबो पर दया करे ।” इस निवेदन को बाजीराव ने अत्यंत निर्दयता से कुचल दिया और कठोर शब्दों में बाजीराव पेशवा ने अत्यंत द्वेषपूर्ण भावना से कहा, “तुम महारो की सहायता की हमे कोई आवश्यकता नही है । तुम्हे जरुरी लगे तो हमारे और से लडो । परंतू धर्मशास्त्र, स्मूती ग्रंथो के सूत्रो के अनुसार तुम्हे, हम ऊंची जाती के लोगों की सेवा करनी ही पडेगी । अतः तुम्हे धर्म की रक्षा के लिए लडना चाहीए । इसके बदले हम तुम्हे कोई भी स्थान कभी भी नही देंगे । तुम्हारा स्थान निचले दर्जे का है और वही पर बना रहेगा ।” “तुम तुम्हारी जगह प्राप्त करने के लिए इतने ही आतुर हो तो तुम्हे वह स्थान यदी तुम्हें युध्द करके मिलता है तो धर्म रक्षा के लिए हमें भी शस्त्र हाथ मे लेने पडेंगे और वह स्थान तुम्हे युध्द की मूत्यू में ही अंतिम मिलेगा ।” “तुम शत्रुओं का उच्चवर्णीयो ने सर्वनाश किया तो भी हमे पाप नही लगेगा । यह स्मूती ग्रंथ में बताया गया है । और याद रखो ! तुम नमकहरामी करके हमारे विरुध्द ब्रिटीशों के साथ लडने वाले होंगे तो भविष्य में होने वाला युध्द यह ‘पेशवा बनाम ब्रिटिशो’ का न होकर ‘महार बनाम पेशवा’ का ही होगा ऐसा हम समझेंगे यही हमारे अंतिम युध्द की घोषणा है । ” द्वितीय बाजीराव पेशवा की निर्णायक वाणी से महार सैनिकों के मन में ज्वाला भडक उठी । सेनापती शिदनाक ने चेतावणी भरे लहजे में बाजीराव पेशवा को प्रती उत्तर देते हुए कहा, “महाराज, हमने आज तक आपके हजारों अपराध सहे है । अब तुम्हारा प्रत्येक पल तुम्हे जीवन-मरन की सीमा रेखा खींचकर करीब ला रहा है । सावधान हो जाओ और संयम रखो ! युध्द के अलावा दूसरी जगह पर संयम ही क्षत्रियों का धर्म है ! हमारी सहनशिलता हद से बाहर जाएगी ऐसा किया तो उसका परिणाम बुरा होगा । दर्शन की बात करने वाले डरपोक, पुरुषार्थ यही क्षत्रियों का धर्म होगा और आप सच्चे क्षत्रिय होंगे तो युध्द मे हमें हराकर दिखाओ सेनापती शिदनाक ने कहा, “हम गरीबों के साथ युध्द की भाषा मे बात मत करो । हमारे साथ युध्द की बात करना अर्थात बकरी द्वारा सिंह को खाने का निमंत्रण देना है । प्रेमभाव से जितने विवाद मिट सकते है उतने युध्द से नहीं । युध्द से किसी का भी प्रश्न हल होने वाला नही । युध्द मानवीय शौर्य उखाडने के लिए किया जाने वाला माध्यम तो है, परंतू उतना ही कठोर उपाय भी है । युध्द बर्बादीका कारण होता है । युध्द से हमारा हित कभी भी सधने वाला नही । क्योकी वह जिवन का अंतिम ध्येय नही । जिवन का अंतिम ध्येय प्रकाश है । सत्य, प्रेम, ज्ञान, स्वयं प्रकाश यह विश्व को आपका अहंकार, कपट, क्रोध और बदला इस राक्षसी विकार की कथा पीढी दर पीढी सुनाते रहेगा” इसलिए महाराज याद रखा, “इस युध्द में यदि हम महारों ने हाथो मे शस्त्र उठा लिया तो धरती का बोझ बने आपके अन्यायी द्वेषयुक्त स्मूतीग्रंथ और तुम्हारी ऊंची जाती के मस्ताए शरीर इसी मिट्टी में मिलाएं बिना नही रहेंगे । युध्द की बात हमारे साथ मत करो ! जिस मिट्टी मे हमने जन्म लिया, उस मिट्टी के निकले अनाज के दाने की याद है हमें ! अपनी भूमी के लोगो के साथ मे शस्त्र लेकर लडना हमें अच्छा नही लगता । वह तुम्हारे कहे अनुसार पाप होगा परंतू न्याय और अपने अधिकार के लिए युध्द करना पाप नही, यह एक सत्य है ! समय आने पर हमें भी तुम्हारे विरुध्द युध्द करना पडेगा, यही हमारी युध्द की अंतीम घोषणा है।” द्वितीय बाजीराव पेशवा ने इन महार सैनिको के बारे में थोडी भी सहानुभूती न दिखाते हुए उन्हे अपमानित करके भगा दिया । पेशवाओं ने महार सैनिकों का अपमान करके भगा देने से उन्हे बहुत बुरा लगा । बाजीराव पेशवा से मिलकर आए महारों ने जो कुछ भी हुआ यह आपने भाईयों को बताया । इस कारण महार भाइयों को पेशवा से अत्यंत घूणा होने लगी । हजारो बंधन लादकर सताए गए महार सैनिकों ने अपने सामर्थ्य की गवाही भारतीय इतिहास में सिध्द कर दी है । उनके इस अग्निदिव्यता और महान त्याग की झलक बाजीराव पेशवा को कम से कम एक बार होनी चाहिए थी, परंतू ऐसा हुआ नही । महार सैनिकों ने पेशवा की ओर से लडने और अछूतो के अधिकारों को साधारण मांग उठाने पर बाजीर बाजीराव ने उसे नकार कर उन्हें भगा दिया, यह अत्यंत खेद की बात है । बहुत निस्वार्थ भाव से पेशवाओं को सहायता करने के लिए गए महार सैनिकों को अंतत: निराशा ही हात लगी । महार सैनिक अब तक पेशवा को अपना धर्म भाई समझते थे, परंतू वे धर्मबंधू समझने के लायक ही नही थे, यह अब महार लोग जान चुके थे । धर्म का दर्शन बताने वाले डरपोक पेशवाओं का पुरुषार्थ ही यदि क्षत्रियों का धर्म होगा तो हम महारों को युध्द मे पराजीत करके दिखाओ, इस प्रकार की बदले की भावना महारों के मन मे घर कर गई थी । उन्होंने अब पेशवा के साथ न रहकर ब्रिटीशों की सेना मे जाकर ब्रिटीशों की और से लडने का निश्चय किया । उनका यह निर्णय कमान से निकले हुए तीर के समान था और इस स्वाभीमान के कारण पेशवा के विरुध्द धर्म युध्द लडने के लिये अपना बोरीया बिस्तर बांधकर और कुछ छितरे हुए महार सैनिकों के साथ महारों का प्रताप सूर्य महायोद्धा रणबांकुरे शिदनाक महार शिरुर, भिमा कोरेगाव के रास्ते पर ब्रिटीश सेना मे दाखील होने के लिए अपने पचास निष्ठावान महार सैनिकों के साथ निकल पडा पेशवाओं ने ब्रिटीश सैनिकों को पुरी तरह से घेरने के कारण पूना से कर्नल बर या दुसरी जगह के जनरल स्मिथ सैनिकों के साथ कोरेगांव नही आ सकते थे । रात के समय किसी तरह ब्रिटीश सैनिकों को नदी का पाणी पीने को मिला । इस अवसर का लाभ उठाकर महार सैनिकों ने नए जोश और उत्साह से पेशवा के सैनिकों पर फिर से हमला किया । इस युध्द मे 1 जनवरी 1818 को रात 9 बजे महार सैनिकों के जबरदस्त हमले से उनकी सहायता के लिये ब्रिटीशों के और सैनिक आ रहे हैं ऐसी खबर लगते ही पेशवा की सेना घबरा गई और पीछे हटने लगी । महार सैनिकों ने उनका फुलगांव तक पिछा किया. पेशवा की विशाल सेना को भागने के लिए मजबूर करने वाली जो पलटन थी वह सारे महार सैनिकों की ही थी और उसका नेतूत्व रतनाक, जतनाक और भिकनाक ने किया था । बाँम्बे नेटिव इन्फंटी अर्थात महार पैदल एक पलटन थी । इसमे मुसलमान, मराठा, और ईसाई भी थे । पैदल चलनेवाले महार सैनिक को उस समय ‘नाक’ कहा जाता था । इस कारण शत्रु को पीछे हटने के लिये मजबूर करने वाले सभी महार योध्दा थे। महार सैनिकों ने पेशवाओं के सैनिकों को फुलगांव की दिशा मे खदेड दिया । द्वितीय बाजीराव पेशवा तो पहले ही भाग गया था । त्रिंबक डेंगळे, विंचुरकर, शिंदे और होलकर ने भी अपनी हार मानकर फुलगाव की दिशा मे पलायन किया । सुबह ठिक 10 बजे शुरु यह युध्द अंतत: रात 9 बजे समाप्त हुआ । महार सैनिको के पेट में अन्न का दाना न रहने के कारण तथा प्यास से व्याकुल हुए शिरुर से कोरेगाव पैदल चलकर थकने के बाद भी मुठ्ठीभर महार सैनिकोने सतत 12 घंटे तक जोश के साथ लडाई लडकर अपने से 56 गुणा संख्या में अधीक और सभी शस्त्र सम्पन्न पेशवा के सैनिकों का 1 जनवरी 1818 को जोरदार तरीकेसे परास्त किया । अपने अतुलनिय पराक्रम से लडकर अंतत: पेशवाई का अंत किया । शायद इस लढाई में उल्टी परिस्थिती पैदा हो सकती थी, यदि सरदारो की सलाह मशविरे के अनुसार द्वितीय बाजीरावने शिदनाक महार और उसके साथी सैनिकों की सलाह ध्यान मे रखकर पेशवाकी और से महारों को अपना शौर्य दिखाने का एक अवसर दिया होता । पेशवाई में केवल महार पराक्रमी, शौर्यवान और बुध्दिमान होने के बाद भी पशुतुल्य जीवन जिने के लिए मजबूर करने के कारण महारों का नाराज होना लाजमी था । इस घूणास्पद बर्ताव के कारण वे त्रस्त थे । इस कारण वे पेशवाई की सत्ता के विरुध्द भडके हुए थे । पेशवाई में महारों के सरदार शिदनाक ने स्वाभिमान प्रकट करके बाजीराव पेशवा से पेशवाई की अपनी अस्मिता बदलने के लिए निवेदन करके उसके लिए महार सैनिक अपनी मातूभूमी के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने की भी बात कही थी । फिर भी पेशवा ने अत्यंत तिरस्कारपूर्ण तरीके से यह अनुरोध ठुकरा दिया था । इसलिये महारों की संख्या कम होने के बाद भी वे अत्यंत शौर्य जिद से अपने प्राणों की बाजी लगाकर लडे तथा छुआछूत की सीमा लांघ चुकी पेशवाई को सत्ता से बेदखल करने का प्रण लिया ऐसा कहना अतिशयोक्ती नही होगा। आखीर मे मै यही कहना चाहता हू की, बाजीराव पेशवा को महार सैनिक सेनापती शिदनाक का अपमान करने का काम महंगा पडा । ईसलिये उसकी धर्माधता का इस प्रकार अंत हुआ । ब्रिटीशों का सामराज्य स्थापित करने के लिये जिन सवर्ण ब्राम्हणोओं ने ब्रिटीशों की सहायता की थी उसके बदले मे उन्हें काफी कुछ मिला । किसी को जागीरी, किसी को जमीन, तो किसी को धन-सम्पत्ती मिली । शनिवारवाडे पर ब्रिटीश यूनियन जैक का झंडा स्थापित करने के लिये बालाजी के पौत्र को सरदारकी मिली । पेशवाओं के सरदारों को जागीर और संस्थान मिले । परंतू जिन शुरविर महारों ने युध्द में स्वयं के प्राणो की आहुती देकर ब्रिटीशों को ऐतिहासिक विजय दिलाई इसके लिए उन्हे केवल कोरेगाव का ‘विजय स्तम्भ’ मिला. इस लढाई में विरगती प्राप्त तथा जख्मी सैनिकों की याद में उनके पराक्रम की किर्ती अजरामर रहनी चाहीए इसलिए भीमा कोरेगाव में भीमा नदी के तट पर युद्ध की शुरुआत जहां से हुई वहां ब्रिटीशों ने भव्य स्तम्भ खडा किया । 26 मार्च, 1821 को भव्य विजय स्तम्भ का भूमी पुजन समारोह अत्यंत शानदार तरीकेसे सम्पन्न हुआ । बंदूक और तोपो की राज सलामी दी गई । 1822 मे विजय स्तम्भ का काम पुर्ण हुआ । पुर्व में इस विजय स्तम्भ को ‘महर स्तम्भ’ के नाम से जाना जाता । यह विजय स्तम्भ 75 फुट ऊंचा है । स्वतंत्र रेजिमेंट स्थापित होने के बाद सन 1941 से 1946 तक इस विजय स्तम्भ का चिन्ह उनकी कैंप तथा बैंच पर गौरवपूर्वक रखा गया था और महार रेजिमेंट सेंटर मुख्यालय सागर (मध्यप्रदेश) में इसी स्तम्भ की प्रतिक्रूती (नकल) ‘युध्द स्मारक’ के तौर पर बनाई गई । संपादन- सोनू ईश्वरदासजी कांबळे वर्धा

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