संजय कालिया जालंधर (पंजाब)
सिद्ध श्री मधुसूदन दास बाबा का जन्म पूर्व बंगाल प्रांत के अन्तर्गत किसी छोटे से गांव में हुआ। गांव में कभी-कभी संतो की जमात आती तो ये सत्संग एवं दर्शन के लिए चले जाते। एक दिन ब्रज के कुछ रसिक संतों की टोली भ्रमण करते हुए पहुंची। संतों ने श्यामसुंदर की ऐसी मनोहर झांकी का वर्णन किया और बताया कि उनको प्राप्त कर लेने के बाद कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। दर्शन कर बालक लौटकर घर आ गया पर अब निरंतर श्यामसुंदर को देखने की चाह मन में बढ़ती गई।किसी सांसारिक काम में उसका मन नहीं लगता। माता-पिता एवं परिवार के लोगों को बहुत चिंता हुई। कहीं ये घर से भाग कर चला न जाए इसलिए अतिशीघ्र इनकी इच्छा न होते हुए भी इनका विवाह कर दिया। लेकिन विवाह के दिन रात्रि में चुपचाप घर से श्रीधाम वृंदावन की ओर निकल पड़े।
श्री धाम वृंदावन आकर यमुना जी के किनारे एकांत में वंशीवाले की याद में रोते रहते। कभी जाकर मधुकरी मांग लाते, कभी यमुना जलपान करके ही रह जाते। संतो के द्वारा सुना था कि बिना गुरु-दीक्षा के भगवान की प्राप्ति नहीं होती। एक दिन यमुना के किनारे केशी घाट पर एक वृक्ष के नीचे गुरु की चिंता में बैठे हुए थे। उसी समय एक महात्मा वहां स्नान के लिए आए और इनको मंत्र दीक्षा दे दी। मंत्र श्रवण करते ही ये मूर्छित होकर गिर पड़े। जब कुछ देर बाद होश आया तो वहां कोई भी नहीं था। गुरु का नाम स्थान आदि कुछ भी न जान सके। उसी मंत्र को नित्य जपना प्रारंभ कर दिया ।
कुछ दिन बाद गोवर्धन मानसी गंगा के निकट सिद्ध श्री कृष्णदास बाबा के पास आकर उनसे भजन की रीति पूछने पर सिद्ध बाबा ने इनका परिचय पूछा। इन्होंने गृह त्याग से दीक्षा तक सारी घटना सुना दी। बाबा बोले- हमारा राजमार्ग का भजन तो संबंधानुगा है। इष्ट से संबंध का निर्णय गुरु परिवार से होता है। उसी संबंध के अनुरूप तुम्हारा भजन होगा। लेकिन तुम्हें तो अपने गुरु परिवार का पता ही नहीं। इसलिए रागानुगा भजन में तुम्हारा अधिकार नहीं। और दूसरी दीक्षा तुम्हें दी नहीं जा सकती क्योंकि तुमने किसी संप्रदाय में मंत्रार्थ सहित दीक्षा ले रखी है। सिद्ध बाबा की बात सुनकर ये अत्यंत दुखी होकर रोने लगे। तब बाबा बोले- तुम काम्यवन के सिद्ध बाबा श्री जयकृष्णदास जी के पास जाओ। काम्यवन आकर बाबा को सारी बात कही।
बाबा जयकृष्णदास जी ने कहा -तुम एकांत में हरिनाम करो। राधारानी जो करेगी सो होगा। जैसे गुरुदेव भगवान ने तुम्हारी दीक्षा की इच्छा पूरी की वैसे ही रागानुगा भजन की इच्छा भी पूर्ण करेंगे। बाबा की बात सुनकर रोते हुए श्री मधुसूदनदास जी गोवर्धन वापस आ गए। यहाँ विचार करने लगे- जब मैं रागानुगा भजन का अधिकारी ही नहीं हूं तो इस जीवन को रखने से क्या लाभ ? ऐसा विचार करके एक गिरीराज शीला को रस्सी से गले में बांधकर श्रीराधाकुण्ड में कूद गए। बहुत समय तक संज्ञाहीन अवस्था में पानी में डूबे रहे। जब होश आया तो देखा किसी ने गले की रस्सी खोल दी है और श्रीराधाकुण्ड के तट पर लिटा दिया है । हाथ में एक लाल पत्र है जिसमें कुछ लिखा हुआ है। इसे श्रीजी की कृपा जानकर बाबा श्री जयकृष्णदास जी को तालपत्र दिखाकर सब बात सुनाई तब श्रीजयकृष्णदास बाबा बोले- तुम्हारे ऊपर श्रीजी की कृपा यथेष्ट है लेकिन तुम्हे जो मिला है वह अव्यक्त है । तुम पुनः श्रीराधाकुण्ड पर जाकर पुकार करो, वे अवश्य कृपा करेंगी। वहां से श्री मधुसूदनदास जी पुनः श्रीराधाकुण्ड आकर तीव्र वेदना के साथ रोते हुए किशोरी जी को पुकारने लगे।
परम करुणामयी सहज कृपा करने वाली श्री किशोरी जी ने प्रकट हो कर दर्शन दिया और आज्ञा प्रदान की – तुम सूर्यकुण्ड में जाकर भजन करो, वहां तुम्हें अभीष्ट रागानुगा सेवा की प्राप्ति होगी। जो तुम्हें मंत्र मिला है उसमें किसी को दीक्षित न करना, आजीवन उसे गोपन रखना। श्रीजी अंतर्ध्यान हो गई। श्री मधुसूदनदास जी वहां से सूर्यकुण्ड आ गए और यही भजन करने लगे।
एक दिन प्रिया जी ने बाबा को स्वपन में आदेश दिया कि तुम जिस घाट पर स्नान करते हो उसके निकट कण्ठ तक जल में एक शिला है जिस पर मैंने और मेरी सखियों ने स्नान करते समय अपने आभूषण रखे थे। उस शिला पर आभूषणों के चिन्ह बन गए हैं। तुम उस शिला को निकालकर उसका पूजन किया करो। बाबा ने ऐसा ही किया।आज भी लोग इस शिला के दर्शन करते हैं। तभी से सभी बाबा को सिद्ध बाबा कह कर पुकारने लगे।
एक बार कार्तिक मास में बाबा ने ब्रजवासियों से श्रीमद् भागवत पाठ करने की इच्छा व्यक्त की। ब्रजवासियों ने प्रसन्नतापूर्वक सारी व्यवस्था कर दी। रासपंचाध्यायी का पाठ होने लगा। सूर्यकुण्ड के पास ही रहने वाला एक डोम का बालक नित्य पाठ सुनने आता। उसे देखकर बृजवासी नाना प्रकार की बातें करते । पाठ की समाप्ति वाले दिन बाबा की गोद में आकर बैठ गया। पाठ के बीच में ही उसने बाबा से पूछा – बाबा! श्रीकृष्ण ने रास के पश्चात विश्राम कहां किया? सेवाकुंज में या संकेतवन में? बाबा प्रश्न का उत्तर देते, उससे पहले बम फटने जैसा शब्द हुआ। बाबा के प्राण ब्रह्मरंध्र भेद् कर निकल गए। उसी स्थान पर बाबा की समाधि बनाई गई जो आज भी दर्शनीय है। मार्गशीष शुक्ल अष्टमी तिथि आज ही के दिन बाबा अपनी मंजरी स्वरूप से नित्य निकुंज की सेवा में सम्मिलित हुए।